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कविता

प्रेम कविता

रति सक्सेना


 

पंख के एक बाल को डिबिया में सजाते हुए
उसने एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा
उस ढेर को जहाँ उसके मोह की खपच्चियाँ बिखरी पड़ी थीं

अभी की ही बात है कि
एक पंख उड़ता आया, श्वेत श्यामल रोयें
तनिक सलेटी सी नसें, और जड़ में रक्त का मध्यम धब्बा

उसने हथेली खड़ी की, सिरे को तराजू सा साधा
और पंख को टिकाते ही वह समझ गई कि
प्रेम से कहीं भारी है है यह, और प्रेम से कहीं हलका भी

उसने एक खपच्ची उठाई, विश्वास की और
पंख को तौल टिका दिया, फिर दूसरी खपच्ची आस की
तीसरी चौथी, पाँचवी खपच्चियों तक वह पंख उससे दूर जा चुका था
सबसे अंत में उठी मोह का भारी खपच्ची,

वह मुक्त थी, प्रसन्न भी कि
तनिक सा विश्वास हिला

जरा भी वक्त नहीं लगा उसे, प्रेम को नकारने में
भरभरा कर गिरे उस ढेर में
पंख भी कहीं था, जिसे अनदेखा कर

वह फिर चल दी अपनी मिट्टी के घर में
जहाँ पंख रखने तलक की जगह बाकी नहीं है

 


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